अब नहीं दिखाई देते सावन-तीज के झूले, गीत गाती महिलाएं।
गांव-देहात में खत्म हो चुकी सावन के झूलों की परंपरा को शहरों में संजों रखा सिर्फ कुछ संस्थाओं ने।
हरियाली तीज पर झूलों का विशेष महत्व है। बिना झूले तीज का त्योहार अधूरा ही माना जाता है। एक समय था जब शाम ढलने पर महिलाओं की टोलियां पारंपरिक सावनी गीत गाते हुए झूला-झूलने के लिए निकलती थीं। शादी के बाद पहले सावन में नवविवाहिता का मायके आकर सावनी गीतों पर झूला-झूलना शगुन माना जाता था। इस मौके पर झूले की पींग बढ़ाती महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले – सावन के झूले ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापस आया…. जैसे प्रिय गीत भी अब घरों में नहीं गूंजते हैं।
सुदूर गांव-देहात में भी खत्म हो चुकी सावन के झूले की परंपरा को शहरों में सिर्फ अब कुछ संस्थाओं ने ही संजों रखा है। पेड़ों की संख्या दिनों-दिन कम होने से झूले डालने की जगह नहीं बची है और सावन-भादौं के महीने में शहरों में थीम पार्टी में फूलों से सजे झूले लगाए जाते हैं। हाइटेक होते युग में तीज का त्योहार भी हाइटेक होने लगा है। पेड़ों की कम होती संख्या और सामाजिक परिवेश की वजह से किशोरी और युवतियों ने घरों में ही झूला डालना शुरू कर दिया तथा आजकल तो घरों में भी यह परंपरा मुश्किल से ही देखने को मिलती है। अब सावन तथा तीज त्योहार के गीत और झूले यादों में सिमट कर रह गए हैं। एकल परिवार होने से तीज-त्योहारों को सामूहिक रूप से मनाने की परंपरा खत्म हो चुकी है।
पहले सावन में नव विवाहिताएं अपने पीहर आती थी। हरियाली का यह मौसम पति और पत्नी के लिए बहुत खास होता था। इस महिने में पेड़ों की डाल पर झूले डलते थे। जहां नव विवाहिताएं अपनी सखी-सहेलियों के साथ हंसी-ठिठोली कर सावन के गीत गाती थी। जब सहेलियां पति के बारे में पूछती थी तो सीधे बोलने में नवविवाहिताएं शर्माती थी, इसलिए गीतों के माध्यम से अपने भाव व्यक्त किया करती थी। अब ना सावन के गीत सुनाई देते हैं और ना ही पेड़ों पर झूले दिखाई देते हैं। आज पेड़ भी कहीं ना कहीं अपने उन पुराने दिनों को याद करते होंगे जब उनको महिलाओं का साथ मिलता था।
सिंधारा व कोथली भेजने का है रिवाज:
हरियाणवीं संस्कृति में इस त्योहार को हरियाली तीज व मीठी तीज के नाम से जाना जाता है। घर-घर में कोथली और सिंधारा भेजने के चर्चे होते हैं। कोथली कन्या पक्ष द्वारा भेजी जाती है जबकि नववधू की पहली सधारा वरपक्ष की तरफ से भेजा जाता है। इसे लाड कोथली कहते हैं। कोथली में भाई अपनी बहन के घर मेंहदी, चुडिय़ों का जोड़ा, धागों का नाला तथा भेंटस्वरूप मीठी सुहाली, घेवर, फिरनी तथा बताशे लेकर जाता है।