धोती-कुर्ता व सिर पर नहीं दिखाई देता चौधर का प्रतीक “खंडवा”
धोती-कुर्ता व सिर पर नहीं दिखाई देता चौधर का प्रतीक “खंडवा”
अब गांव की गलियों में नहीं दिखाई देती बावन गज के घाघरे, दामन-कुर्ता, जड़ावदार चुन्नी पहने महिलाएं। पश्चिमी सभ्यता के बढ़ावे के इस दौर में प्रदेश में समय के साथ आए बदलाव के कारण लोगों के पारंपरिक परिधान में भी बदलाव देखने को मिल रहा है। पहले जहां रोबदार व्यक्ति की पहचान धोती-कुर्ता व सिर पर खंडवे के रूप में होती थी तथा उन्हें ही चौधरी व नेता के रूप में जाना जाता था, लेकिन समय बदला, पहनावा बदला, हालात यह हो गए हैं कि अब गांव-गांव, घर-घर में यह पहनावा खत्म होने की कगार पर है। पश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण दिन-प्रतिदिन सामाजिक ढ़ाचे व रहन-सहन के साथ पहनावे में आए बदलाव से न केवल युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति को भुलती जा रही है बल्कि पाश्चत्य संस्कृति का प्रभाव समाज के बुजूर्गों पर भी देखा जा सकता है। समाज में आनर किलिंग व अंतरजातीय विवाह का अन्दरखाते विरोध कर सामाजिक व प्राचीन संस्कृति को जीवित रखने व युवा पीढ़ी को मर्यादा का पाठ पढ़ाने का दावा करने वाले खाप पंचायतों के सदस्य व समाज में मौजिज लोगों का दर्जा रखने वाले बुजूर्ग भी इस संस्कृति की लपेट में है।
चुनावों के समय अक्सर नेताओं की वेशभूषा में नजर आने वाले कार्यकर्ता भी इससे अछुते नहीं है। समाज के चौधरी व आन-बान-शान की प्रतीक मानी जाने वाली पगड़ी जिसे देशी भाषा में “खंडवा” के नाम से जाना जाता है तथा सामाजिक परंपरा के अनुसार इसे वे लोग धारण करते हैं जो समाज में प्रतिष्ठित, गणमान्य व पंचायती व्यक्ति माने जाते हैं। वर्तमान में खाप पंचायतें व अन्य संगठन सामाजिक मूल्यों व मर्यादाओं की रक्षा के लिए समय-समय पर दम भरते नहीं थकते, लेकिन एक कटु सच्चाई यह भी है कि उन लोगों के सिर से आज खंडवा गायब है, इसके पीछे कारण चाहे कुछ भी हो इतना अवश्य है कि पाश्चत्य संस्कृति के प्रभाव के चलते आन-बान व शान का प्रतीक “खंडवा” भी अपनी पहचान खोता जा रहा है तथा वर्तमान स्थिति पर गौर किया जाए तो खंडवा बुजूर्गों के सिर से लुप्त ही हो गया है या फिर यूं कहा जाए की चौधर का प्रतीक खंडवा अब सिर के ऊपर बोझ बन गया है तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होनी चाहिए।
पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से बावन गज की घाघरी, दामन-कुर्ता, जड़ावदार चुन्नी या फिर शान का प्रतीक खंडवा व साफा केवल संस्कृतिक कार्यक्रमों के मंचों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। वैश्वीकरण के दौर में हरियाणवी परंपरागत पहनावा लुप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। बदलाव के इस दौर में परंपरागत हरियाणवी पहनावा, जहां घरों से गायब हो रहा है, वहीं फैशन व माल संस्कृतिक दौर में लोग परंपरागत वस्तुओं को अलविदा कह रहे हैं। मांग न होने के कारण बाजार से परंपरागत वस्त्र दामन, घाघरा कुर्ती-कुर्ता, चुंदड़ी व खंडवा मिलने मुश्किल हो गए हैं, जबकि हरियाणवी संस्कृति का प्रतीक दामन ढूढऩे से भी नहीं मिलता, जिससे पहनकर हरियाणवी नारी कहीं निकलती थी तो लोग उसकी समृद्धि का अनुमान लगाते थे। कभी रंग-बिरंगे दामन व घाघरी के पहनावे की पनिहारिनों में स्पर्धा होती थी।
हरियाणवी गीतों के बोल “मेरा दामन सिला दे ओ नंदी के बीरा” ग्रामीण महिलाओं के दामन के प्रति अटुट लगाव को प्रर्दशित करते हैं। बदले हुए हालात को दर्शाते हुए एक अन्य लोकगीत बोल बदली हवा बदल गया पानी,बदल गई चाल आज के बदले परिवेश को दर्शाती है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दिल्ली के तख्त की महत्वकांक्षा या विदेशी आक्रमणकारियों के कारण हरियाणवी संस्कृति पर भी प्रभाव पड़ रहा है। वर्तमान में समाज में लोगों ने पारंपारिक वेशभूषा छोडक़र मुस्लिम सलवार-कमीज को अपनाया , जिसके चलते हरियाणवी पोशाक के प्रचलन में कमी आई है, जबकि रही कसर अंग्रेजी प्रभाव ने पुरी कर दी है। मुस्लिम परिधान तो हरियाणवी संस्कृति में मेल खाते है, किन्तु पश्चिमी लिबास तो एकदम विपरीत हैं क्योंकि अब धोती-कुर्ता व सिर पर खंडवा धारण करने वाले व्यक्ति को अनपढ़ व ग्वार जो समझा जाने लगा है।